एक पत्थर

कविता

,

मन की बात



एक पत्थर मैं उठाऊं, एक पत्थर तू उठा,
तोड़ देँ अपनी ज़मीनें, बाँट लें अपना खुदा ।


हक़ जमालें पत्थरों पर, कर लें सबकुछ मुट्ठी में,
कैद कर जग की खुदाई, बनलें हम खुद ही खुदा ।


कैसे कैसे लोग कैसे, खून के प्यासे बने,
करते कत्ल ए आम और, बदनाम करते हैं खुदा ।


होके सबसे हताश मैंने, ये सयाही पलटी है,
होके यूँ अनजान जाने, तू कहाँ बैठा खुदा ।


या फिर एक पत्थर मैं उठाऊँ…
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