दो दिन पहले मुझे एक अनोखी रैली में जाने का मौक़ा मिला। रैली का नाम था ‘पिंक रैली’ (गुलाबी रैली कह सकते हैं आप)। अगर मनुष्य के मन की बात करें तो गुलाबी शब्द से एक स्त्रैण भाव का विचार हमारे मन में पनपने लगता है। गुलाबी रंग भी फूलों की कोमलता का अनछुआ स्पर्श हमें दे जाता है। और मुंबई के अगस्त क्रान्ति मैदान पर पहुँचते ही मैं ऐसे ही कुछ कोमल मन के किरदारों के बीच पहुँच गया, लेकिन प्यार – मोहब्बत की बातें करने नहीं बल्कि मैं एक रैली में था जो अपने हक की बात करने के लिए ज़ोर शोर की आवाज़ करनेवाली थी, ये रैली थी तृतीयपंथियों (Transgender) की।
सवाल यह उठा कि भला तृतीयपंथी भी रैली निकालते हैं? अजी उन्हें क्या ज़रूरत पड़ गई यह गुलाबी रैली निकालने की। तो बात एकदम सीधी है – अगर आप अपने परिवार के किसी इंसान को अगर किसी हक़ से वंचित करेंगे तो वह आपसे झगड़ेगा, बगावत करेगा, चिल्लाएगा, रैली निकालेगा, मुकदमा करेगा, नारे बाज़ी करेगा। और यही तो वे लोग भी कर रहे थे। बस परिवार ज़रा बड़ा है, देश – दुनिया है, और वह वंचित सदस्य यह गुलाबी लोग।
जैसा कि हर रैली में होता है, आगे नेता होता है माईक लिए, उसके आस पास नारे लगानेवालों की भीड़, और पीछे अनुयायियों का हुजूम। रैली में आगे की तरफ बहुत शोर शराबा हो रहा था तो मैं और मेरी एक मित्र जो पिछले १२ वर्षों से तृतीयपंथियों के साथ काम कर रही है, हम दोनों पिछले हिस्से की तरफ उनके करीब गए और उनसे बात करने की कोशिश की। हमने उनसे पूछा कि आप क्या चाहते हैं समाज से आखिर आपकी डिमांड (माँग) क्या है? तो वे मेरे हाथ में कैमेरा देखकर थोड़ा सकुचाए, लेकिन हमारे यह कहने पर कि हम मीडिया से नहीं हैं, उन्होंने यही कहा कि जिस तरह आप काम करते हैं, मेहनत करते हैं, अपनी रोज़ी रोटी कमाते हैं, वैसे हमें भी इज़्ज़त से पैसे कमाकर अपना जीवनयापन करना चाहते हैं। इसके अलावा भी कई मुद्दों के बारे में वह नारेबाज़ी करते रहे लेकिन मुख्य मुद्दा तो समान अधिकार का ही था।
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अगस्तक्रांति मैदान से पैदल चलकर यह पिंक रैली गिरगाँव चौपाटी गई और वहीं से वे लोग वापसी के लिए लौट पड़े। पास ही में एक बहुत ही मुंबई का एक मशहूर कॉलेज भी था तो मेरी उस सहेली ने कहा कि चलो इन नव अध्येताओं से ही पूछ लेते हैं कि उनका क्या कहना है इन तृतीयपंथियों के बारे में। तो हमने उनसे पूछा कि आपका बेस्ट फ्रेंड (सबसे प्रिय मित्र) कौन है – और उनका नाम बताइए। सहज ही उन्होंने इस बारे में बात की और जिस बात की आशंका थी उन्होंने या तो किसी लड़के का नाम लिया या तो किसी लड़की का। हमारा अगला सवाल था कि क्यों आपका कोई मित्र तृतीयपंथी नहीं है? इस पर वे लोग एक – दूसरे का मुँह देखने लगे। कारण भी थे उनके पास कि कभी हम उनसे मिले नहीं, ज़रा अजीब ही लगते हैं वो लोग बेढंगे से इत्यादि।
तृतीयपंथी, हिजड़ा, किन्नर (जिन्हें समाज छक्का भी कहता है) शब्द चाहे जो भी ले लीजिए लेकिन आम आदमी का मन अब भी उनके लिए एक जैसा ही है – भय जनित, अवहेलना जड़ित। आप दूर से उन्हें रास्ते पर सामने से आता हुआ देखेंगे और भय के कारण रास्ता बदल देंगे। ट्रेन में उन्हें ज़ोर से ताली बजाकर, “ऐ बाबू, पैसे दे ना” इस तरह की गुहार लगाते हुए सुनेंगे और उससे पीछा छुड़ाने के लिए अपनी नज़रे फेर लेंगे। लेकिन सच बात तो यह है कि हम ‘आम’ लोग अपने ही द्वारा बनाई गई सामाजिक रचना में पड़ी खोट से नज़रें चुरा रहे हैं।
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[अनाम प्रेम] [मेरे अनुभव]
गजब बात यह थी कि रैली जब अपने आरम्भ स्थान की ओर मुड़ी तब वहाँ एक व्यक्ति से हमने बात करने की कोशिश, सोचा इन जनाब की राय ले ली जाए। उन्होंने तो उल्टे हम पर ही धावा बोल दिया। कहने लगे कि आप लोग बहुत ही बेकार हो, रैली निकलवाते हो, हल्ला – गुल्ला मचाते हो, आप लोग इनको काम क्यों नहीं दे देते कुछ, ये सारी परेशानी दूर हो जाएगी। हमारी बात बात सुनने से पहले ही उन्होंने अपने अंदर का सारा ज्ञान हम पर उड़ेल दिया और वहाँ से चलता बना। उस ४५ – ५० वर्ष के इंसान पर दया खाने के आलावा हमारे पास कुछ और नहीं था।
तृतीयपंथी भी एक इंसान है, और यह हमें तय करना है कि वह हमारे सामने भीख माँगे या हमारे संग काम करे और इज़्ज़त कमाए।
जैसा कि हर रैली में होता है, आगे नेता होता है माईक लिए, उसके आस पास नारे लगानेवालों की भीड़, और पीछे अनुयायियों का हुजूम। रैली में आगे की तरफ बहुत शोर शराबा हो रहा था तो मैं और मेरी एक मित्र जो पिछले १२ वर्षों से तृतीयपंथियों के साथ काम कर रही है, हम दोनों पिछले हिस्से की तरफ उनके करीब गए और उनसे बात करने की कोशिश की। हमने उनसे पूछा कि आप क्या चाहते हैं समाज से आखिर आपकी डिमांड (माँग) क्या है? तो वे मेरे हाथ में कैमेरा देखकर थोड़ा सकुचाए, लेकिन हमारे यह कहने पर कि हम मीडिया से नहीं हैं, उन्होंने यही कहा कि जिस तरह आप काम करते हैं, मेहनत करते हैं, अपनी रोज़ी रोटी कमाते हैं, वैसे हमें भी इज़्ज़त से पैसे कमाकर अपना जीवनयापन करना चाहते हैं। इसके अलावा भी कई मुद्दों के बारे में वह नारेबाज़ी करते रहे लेकिन मुख्य मुद्दा तो समान अधिकार का ही था।
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क्या आपका कोई best friend transgender है? अगर नहीं है तो क्यों नहीं है?उनकी बात थी तो सही लेकिन हमारे समाज में कोई प्रथा भी तो नहीं जो उनके बारे में खुलकर बताए। हमारी शिक्षा प्रणाली भी इस विषय की अवहेलना करती है। हम लोगों ने भी इस तृतीयपंथियों को नाचगाने तक ही सीमित रखा है। और फलस्वरूप वैश्यावृत्ति और भीख माँगना ही आज भी उनकी रोज़ी-रोटी का मुख्य साधन है। ऐसा नहीं है कि सुधार नहीं हुआ है, बिल्कुल हुआ है, लेकिन तृतीयपंथियों के बारे में अभी भी हमारी जागरूकता राई के पहाड़ सी ही है।
तृतीयपंथी, हिजड़ा, किन्नर (जिन्हें समाज छक्का भी कहता है) शब्द चाहे जो भी ले लीजिए लेकिन आम आदमी का मन अब भी उनके लिए एक जैसा ही है – भय जनित, अवहेलना जड़ित। आप दूर से उन्हें रास्ते पर सामने से आता हुआ देखेंगे और भय के कारण रास्ता बदल देंगे। ट्रेन में उन्हें ज़ोर से ताली बजाकर, “ऐ बाबू, पैसे दे ना” इस तरह की गुहार लगाते हुए सुनेंगे और उससे पीछा छुड़ाने के लिए अपनी नज़रे फेर लेंगे। लेकिन सच बात तो यह है कि हम ‘आम’ लोग अपने ही द्वारा बनाई गई सामाजिक रचना में पड़ी खोट से नज़रें चुरा रहे हैं।
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